Sunday, January 29, 2017

निर्माण

महके इस क़दर कि गुलफ़ाम बन गए ,
बिख़रे इस क़दर कि नाकाम बन गए ,
रोटी को तरसे तो आवाम बन गए ,
अपने ही हक़ को हम हराम बन गए ।

 किसी के होंठो के नाम बन गए ,
तो किसी के मस्तक पे सलाम बन गए ,
कभी धर्म की हवा में बदनाम बन गए ,
तो कभी हरे - गेरुए के मुद्दों के क़लाम बन गए ।

बढ़ती दरारों के आय़ाम बन गए ,
एक बहती दरिया में विराम बन गए ,
कभी थे ख़ास पर अब आम बन गए ,
एक सवेरे की राह में हम शाम बन गए ।

गरीब की लाचारी के दाम बन गए ,
एक पिछड़ी सोच के परिणाम बन गए ,
ललकारा अस्तित्व को तो संग्राम बन गए ,
पर पेट भरा तो शांति के पैग़ाम बन गए ।

अधूरी दुआओं के इल्ज़ाम बन गए ,
आस्था और भय में धाम बन गए ,
मुरली से सुदर्शन तक श्याम बन गए ,
रावण से लड़ते लड़ते हम राम बन गए ।

चले थे मिटाने , निर्माण बन गए ॥॥

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